क्या शिवसेना की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है ?

क्या शिवसेना की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है ?

Shivsena on back foot, Palghar,Sage slaughtering

अफ़वाओं का मौसम और राजनीति की सर्द हवा

महाराष्ट्र की धरती पर वह घटना अभी भी गूंजती है 
पालघर की वह काली रात,
जहाँ तीन निर्दोष जीवन दो साधु और एक ड्राइवर
भीड़ की हिंसा में बुझ गए।

एक अफ़वाह थी, एक शक था, और उस शक ने इंसानियत को मार डाला।

पालघर की वह घटना सिर्फ़ एक त्रासदी नहीं, वह इस युग की एक चेतावनी है।
जहाँ सूचना की जगह अफवाहों ने ले ली, जहाँ विश्वास की जगह भय ने जन्म लिया,
और जहाँ प्रशासन मौन रहा — वहाँ लोकतंत्र की आत्मा घायल होती है।

जब संतों का रक्त बहता है, तो केवल एक धर्म नहीं, पूरी मानवता लहूलुहान हो जाती है। सवाल किसी धर्म का नहीं,सवाल उस संवेदनशीलता का है, जो हमें नागरिक बनाती है, और इंसान बनाए रखती है।

कोरोना लॉकडाउन के बीच यह दर्दनाक दृश्य न केवल महाराष्ट्र को हिला गया,
बल्कि शिवसेना सरकार की नींव तक सवाल पहुँचा गया।
क्या यह शासन की विफलता थी, या अफ़वाहों का अनियंत्रित जाल?

पुलिस और भीड़ — सन्नाटे में छिपे सवाल

वायरल वीडियो में, जब पुलिस के हाथ में वह वृद्ध साधु का हाथ था,
और पीछे से आई एक लात ने उसे गिरा दिया —
तो सवाल उठे, कि उस क्षण पुलिस की आत्मा कहाँ थी?

हवाई फायरिंग क्यों नहीं? भीड़ को रोका क्यों नहीं गया? क्या यह सिर्फ़ भीड़ की हिंसा थी? 

या प्रशासनिक चुप्पी का परिणाम?

लोकतंत्र में प्रश्न पूछना अपराध नहीं, बल्कि नागरिक कर्तव्य है।
और यही कर्तव्य आज महाराष्ट्र के दिल में दस्तक दे रहा है।

 शासन, सियासत और सत्ता की डोर

मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की राजनीति इस वक्त
एक दोराहे पर खड़ी दिखती है।
विधान परिषद की सदस्यता का संकट,
राज्यपाल से मतभेद,
और अंदर ही अंदर बढ़ती असंतुष्टि —
सब कुछ किसी गहरी हलचल का संकेत देते हैं।

कभी शिवसेना सड़कों की पार्टी थी —
महाराष्ट्र की गलियों में, मुम्बई के माटुंगा से लेकर नासिक की घाटियों तक,
एक ही नारा गूंजता था — “मराठी मानूस, शिवसेना आपल्यासोबत आहे!”
वो आवाज़ अब थक चुकी है,  उसका जोश अब सत्ता की मेज़ों के पीछे कहीं खो गया है।

कभी जो पार्टी सड़कों पर जनता के बीच रहती थी,वो अब सरकारी गलियारों में खोई सी दिखती है।
कुर्सी की रक्षा में जनता की आवाज़ डूब गई, और राजनीति ने संवेदनाओं की जगह गणनाओं से ले ली।

लेकिन लोकतंत्र का पहिया कभी थमता नहीं।
वो धीरे-धीरे घूमता है,
और समय के साथ तय करता है —
कौन टिकेगा, कौन बिखरेगा।

शिवसेना, जो कभी अपने दम परमहाराष्ट्र की पहचान थी,आज सत्ता की साझेदारी में अपनी आत्मा खोजती नज़र आती है।

राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी की सक्रियता, उनकी समीक्षा बैठकें, और शिवसेना की नाराज़गी —
यह सब मिलकर एक कहानी कहती है, जहाँ लोकतंत्र के भीतर शक्ति संतुलन की रेखाएँ धुंधली पड़ती जा रही हैं।

संतों का रोष और सियासत का मौन

अखाड़ों के साधु-संत, नागा बाबा,अब चेतावनी की मुद्रा में हैं।
उनका कहना है — “पारदर्शी जांच हो, वरना सड़कों पर उतरेंगे।”
यह केवल धार्मिक आक्रोश नहीं, बल्कि समाज के भीतर विश्वास की दरार है।

अगर यह दरार और गहरी हुई,तो उसका राजनीतिक लाभकौन उठाएगा, यह सब जानते हैं।भाजपा, जो कभी इसी शिवसेना के साथ थी , अब दूरी बनाकर देख रही है —   एक पुराने साथी की धीरे-धीरे होती गिरावट।

 जनता की याददाश्त और गठबंधन की राजनीति

जनता को याद है —
वो चुनाव जहाँ उन्होंने भाजपा-शिवसेना गठबंधन को चुना था,
एक हिंदुत्ववादी सोच, एक स्थिर नेतृत्व के भरोसे।
पर जब शिवसेना ने काँग्रेस-एनसीपी का हाथ थामा,
तो वह गठबंधन जनता के मन में सवाल बनकर रह गया।कुर्सी की राजनीति मेंजब विचारधारा बिखर जाती है,तो जनता चुप नहीं रहती, बस इंतज़ार करती है —अगले चुनाव का।

लोकतंत्र में कोई स्थायी विजेता नहीं होता

आज महाराष्ट्र का शासन एक दर्पण के सामने खड़ा है।
उस दर्पण में दिखाई देता है —प्रशासन की चूक, अफवाहों का ज़हर, और राजनीति की बेबसी।

शिवसेना का अस्तित्व अब सत्ता पर नहीं, जनता के भरोसे पर टिका है। अगर वह भरोसा दरक गया —

                        तो उलटी गिनती सचमुच शुरू हो चुकी है।

             क्योंकि लोकतंत्र में सत्ता नहीं,  विश्वास ही असली राजसिंहासन होता है।

 

लोकतंत्र में अधिकारों की सीमा उतनी ही पवित्र है, जितनी संविधान की शपथ। पर जब सीमाएँ धुंधली पड़ जाती हैं,  तो शासन, प्रशासन और विश्वास —तीनों कमजोर हो जाते हैं।

 

जनता की अदालत में राजनीति

शिवसेना के लिए अब समय है आत्ममंथन का।सत्ता टिकाने की जुगत से ज़्यादा ज़रूरी है
जनता का विश्वास टिकाना।क्योंकि सत्ता गिरती नहीं, विश्वास गिरता है।और जब विश्वास गिरता है,तो किसी भी पार्टी की दीवार अपने आप ढह जाती है। महाराष्ट्र की जनता समझदार है, वह देख रही है, सुन रही है, पर इस बार शायद चुप नहीं रहेगी।  लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताक़त यही है — वह मौन में भी निर्णय देता है। और अगर सचमुच शिवसेना अपनी जड़ों से कटती गई,तो अगली सुबह शायद नई होगी —

पर उसमें बाला साहब की गर्जना नहीं होगी, सिर्फ़ सत्ता की खामोशी गूंजेगी।
(क्रमशः)







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