आज का असहयोग आन्दोलन

आज का असहयोग आन्दोलन


आज का असहयोग आन्दोलन
CAA Protest

ऐतिहासिक और वर्तमान असहयोग का तुलनात्मक दृष्टिकोण

यदि हम इतिहास के पहले असहयोग आंदोलन और वर्तमान के सामाजिक असहयोग की तुलना करें, तो स्पष्ट होता है कि दोनों का उद्देश्य मूल रूप से अन्याय या असंतोष के विरुद्ध स्वर उठाना ही था, किंतु उनके साधन और स्वरूप भिन्न थे।

1. उद्देश्य का अंतर

पहले असहयोग आंदोलन का उद्देश्य था – औपनिवेशिक शासन से मुक्ति प्राप्त करना।
यह आंदोलन राजनीतिक दासता के विरोध में था, जहाँ जनमानस स्वतंत्रता और स्वाभिमान की खोज में एकजुट हुआ था।

वर्तमान असहयोग या असहमति का स्वरूप शासन-व्यवस्था के किसी निर्णय या नीति के विरोध में देखा जाता है।
यह स्वतंत्र भारत के लोकतांत्रिक नागरिकों द्वारा अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रयोग का एक रूप है।

2. साधनों का अंतर

गांधीजी के समय का असहयोग आंदोलन अहिंसा और सत्याग्रह पर आधारित था।
लोगों ने अत्यंत अनुशासन और संयम के साथ ब्रिटिश शासन से दूरी बनाकर अपनी बात रखी।

आज के दौर में असहमति प्रायः सोशल मीडिया, जन आंदोलनों, या धरना-प्रदर्शनों के माध्यम से प्रकट होती है।
कई बार यह सकारात्मक संवाद बन जाता है, तो कभी-कभी भावनात्मक और उग्र भी हो जाता है।
इसलिए आवश्यकता है कि आधुनिक असहमति में भी गांधीजी के संयम और शांति के सिद्धांतों का पालन किया जाए।

3. नेतृत्व और संगठन

पहले असहयोग आंदोलन का नेतृत्व स्पष्ट था — महात्मा गांधी जैसे सर्वमान्य व्यक्तित्व के हाथों में था।
आज की असहमतियाँ प्रायः नेतृत्वहीन हैं, वे विभिन्न समूहों, विचारधाराओं और सोशल मीडिया अभियानों के रूप में प्रकट होती हैं।
इससे विचारों में विविधता तो आती है, परंतु दिशा का अभाव भी देखा जाता है।

असहयोग का लोकतांत्रिक मूल्य

लोकतंत्र में असहयोग का अर्थ शासन के विरोध से नहीं, बल्कि संविधान के भीतर रहकर मतभेद व्यक्त करना है।
संविधान हमें यह अधिकार देता है कि हम अपनी राय रखें, प्रश्न पूछें, और असहमति व्यक्त करें —
पर साथ ही यह भी अपेक्षा करता है कि यह सब शालीन, तर्कसंगत और शांतिपूर्ण तरीके से हो।

यदि असहयोग की भावना शासन की नीतियों में सुधार लाने या जनहित को बढ़ाने के लिए प्रेरित करती है, तो यह लोकतंत्र का सकारात्मक हिस्सा है।
परंतु यदि असहयोग केवल असंतोष फैलाने या समाज में विभाजन की रेखाएँ खींचने का माध्यम बन जाए, तो यह लोकतंत्र की आत्मा को कमजोर करता है।

असहयोग से आत्ममंथन तक

आज हमें यह सोचने की आवश्यकता है कि क्या हमारा विरोध रचनात्मक है या केवल प्रतिक्रिया मात्र?
क्या हम अपने मतभेद को समाधान तक पहुँचाने का प्रयास करते हैं या केवल असंतोष प्रकट करके रुक जाते हैं?

वास्तविक असहयोग तभी सार्थक है जब वह सुधार और आत्ममंथन की दिशा में ले जाए।
गांधीजी ने भी यही कहा था कि

“जब तक हम स्वयं को नहीं सुधारेंगे, तब तक कोई भी आंदोलन स्थायी सफलता नहीं पा सकता।”

इसलिए असहमति को व्यक्तिगत या सामुदायिक दृष्टिकोण से ऊपर उठाकर राष्ट्रीय दृष्टि से देखना आवश्यक है।
हर आंदोलन का उद्देश्य होना चाहिए — समाज को जोड़ना, न कि तोड़ना।

असहमति, संवाद और समाधान

संवाद ही किसी भी असहमति का सबसे प्रभावी समाधान है।
जब हम अपनी राय शांति से व्यक्त करते हैं, तो सामने वाला भी सुनने को तैयार होता है।
पर जब असहयोग टकराव बन जाता है, तो दोनों पक्ष दूर हो जाते हैं और समाधान अधूरा रह जाता है।

भारत के लोकतांत्रिक ताने-बाने में असहयोग और सहयोग दोनों की समान भूमिका है।
जहाँ असहयोग अन्याय के विरुद्ध चेतना जगाता है, वहीं सहयोग विकास के मार्ग को प्रशस्त करता है।
इन दोनों का संतुलन ही एक स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है।

भविष्य की दिशा : असहयोग से सहयोग तक

आज भारत विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में जाना जाता है।
यह केवल संविधान की देन नहीं, बल्कि करोड़ों नागरिकों की सहनशीलता, सहभागिता और विविधता के सम्मान की देन है।

अतः अब समय है कि हम असहयोग को नकारात्मक दृष्टि से न देखकर उसे संवाद और सुधार के अवसर के रूप में अपनाएँ।
जब मतभेद तर्क और सम्मान के साथ व्यक्त होंगे, तब ही राष्ट्र सशक्त बनेगा।

हमें यह समझना होगा कि लोकतंत्र की असली जीत किसी एक पक्ष की नहीं, बल्कि सभी विचारों की सहभागिता में है।
सही मायनों में वही नागरिक सच्चा लोकतांत्रिक है जो शासन से मतभेद रखते हुए भी राष्ट्र के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखता है।

उपसंहार

भारत के इतिहास में असहयोग आंदोलन केवल एक राजनीतिक घटना नहीं, बल्कि एक नैतिक और आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक था।
आज भी उसकी भावना जीवित है — बस उसका रूप बदल गया है।

अब असहयोग का अर्थ शासन से दूरी नहीं, बल्कि अन्याय, असमानता और अज्ञान से दूरी बनाना होना चाहिए।
और सहयोग का अर्थ सत्ता से निकटता नहीं, बल्कि राष्ट्रहित में एकजुटता होना चाहिए।

अंततः यही कहा जा सकता है —

“जब असहयोग विवेक और शांति के साथ किया जाए, तो वह सुधार का साधन बनता है;
और जब सहयोग जनकल्याण के लिए किया जाए, तो वह राष्ट्र निर्माण की शक्ति बनता है।”




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